लेखनी कहानी -27-Jan-2023
कुछ देर से न जाने कैसी दुर्गन्ध बीच-बीच में हवा के साथ नाक तक आ रही थी। एकाएक एक हवा के झोंके के साथ वह दुर्गन्ध इतनी निकट होकर नाक में लगी कि असह्य हो गयी। जितना ही आगे बढ़ते थे, उतनी ही वह बढ़ती थी। नाक पर कपड़ा दबाते हुए मैं बोला, “निश्चय से कुछ सड़ गया है, इन्द्र।”
इन्द्र बोला, “मुर्दे सड़ गये हैं। आजकल भयानक कालरा जो फैल रहा है। सभी तो लाशों को जला पाते नहीं, मुँह पर जरा आग छुआकर छोड़कर चले जाते हैं। सियार और कुत्ते उन्हें खाते हैं- और वे सड़ती हैं। उन्हीं की तो यह इतनी गन्ध है।”
“लाशों को किस जगह फेंक जाते हैं, भइया?”
“वहाँ से लेकर यहाँ तक- सब ही तो श्मशान हैं। जहाँ चाहें फेंक देते हैं और इस बड़के नीचे के घाट पर स्नान करके घर चले जाते हैं। अरे दुर! डर क्या है रे! वे सियार-सियार आपस में लड़ रहे हैं। अच्छा, आ-आ, मेरे पास आकर बैठ।”
“मेरे गले से आवाज न निकलती थी- किसी तरह मैं घिसटकर उसकी गोद के निकट जाकर बैठ गया। पल-भर के लिए मुझे स्पर्श करके और हँसकर वह बोला, “डर क्या है श्रीकांत, कितनी दफे रात को मैं इस रास्ते आया-गया हूँ। तीन बार राम का नाम लेने से फिर किसकी ताकत है जो पास में फटके?”
उसे स्पर्श करके मानो मेरी देह में जरा चेतना आई। मैंने अस्फुट स्वर में कहा, “नहीं भाई, तुम्हारे दोनों पैर पड़ता हूँ, यहाँ पर कहीं मत उतरो- सीधे ही चले चलो।”
उसने फिर मेरे कन्धों पर हाथ रखकर कहा, “नहीं श्रीकांत, एक दफे जाना ही पड़ेगा। यह रुपये दिए बिना काम न चलेगा- वे बैठे राह देख रहे होंगे- मैं तीन दिन से नहीं आ पाया।”
“रुपये कल न दे देना भाई!”
“नहीं भाई, ऐसी बात न कर। मेरे साथ तू भी चल- किन्तु किसी से यह बात कहना मत।”
मैं धीरे से 'ना' कहकर उसे उसी तरह स्पर्श किये हुए, पत्थर की नाईं बैठा रहा। गला सूखकर काठ हो गया था। किन्तु हाथ बढ़ाकर पानी पी लूँ, या हिलने-डोलने की कोई चेष्टा करूँ, यह शक्ति ही नहीं रही थी।
पेड़ों की छाया के बीच में आ पड़ने से पास ही वह घाट दीख पड़ा। जहाँ हमें नीचे उतरना था वह स्थान, ऊपर पेड़ वगैरह न होने से, म्लान ज्योत्सरना के प्रकाश में भी खूब प्रकाशमान हो रहा था- यह देखकर इतने दु:ख में भी मुझे आराम मिला। घाट के कंकड़ों में जाकर डोंगी धक्का न खा जाए, इसलिए इन्द्र पहले से ही उतरने के लिए प्रस्तुत होकर डोंगी के मुँह के पास तक खिसक आया था। किनारे लगते न लगते वह उस पर से फाँद पड़ा; पर फाँदते ही भयभीत स्वर से 'उफ' कर उठा। मैं उसके पीछे ही था, इसलिए दोनों की नजर उस वस्तु पर प्राय: एक ही साथ पड़ी। उस समय वह नीचे था और मैं नौका के ऊपर।
शायद मेरे जीवन में 'अकाल-मृत्यु' कभी उतने करुणा रूप में नजर नहीं आई थी। वह कितनी बड़ी व्यथा का कारण होती है, यह बात, उस तरह न देखी जाए तो, शायद और तरह से जानी ही नहीं जा सकती। गम्भीर रात्रि में चारों दिशाएँ निबिड़ स्तब्धता से परिपूर्ण थीं। सिर्फ बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ों में से कहीं श्मशानचारी सियारों का क्षुधार्त कलह-चीत्कार, कहीं वृक्षों पर सोते हुए अर्धसुप्त बृहत्काय पक्षियों के पंखों की फड़फड़ाहट और बहुत दूर से आया हुआ तीव्र जल प्रवाह का 'हू-हू' आर्त्तनाद सुन पड़ता था। हम दोनों, इन सबके बीच, निर्वाक् निस्तब्ध होकर उस महा करुण दृश्य की ओर देखते रहे। एक छह-सात वर्ष का गौरवर्ण हृष्ट-पुष्ट बालक पड़ा हुआ दिखाई दिया, जिसका सर्वाक्ष पानी में डूबा हुआ था और सिर्फ सिर घाट के ऊपर था। शायद सियार हाल में ही उसे पानी से बाहर निकाल रहे थे, और अब केवल हमारे आकस्मिक आगमन के कारण, कहीं पास ही खड़े हुए हमारे जाने की राह देख रहे हैं। बहुत करके उसे मरे हुए तीन-चार घण्टे से अधिक नहीं हुए थे। मानो वह बेचारा विसूचिका (हैजा) की दारुण यातना भोगकर माता गंगा की गोद में ही सो गया था, और माँ मानो बड़ी सावधानी से उसकी सुकुमार सुन्दर देह को अभी-अभी अपनी गोद से उतारकर बिछौने पर सुला रही थी। इस तरह कुछ जल और कुछ स्थल पर पड़ी हुई उस सोते हुए शिशु की देह पर हमारी आँखें जा पड़ीं।
मुँह ऊपर उठाया तो देखा कि इन्द्र की दोनों आँखों से आँसुओं के बड़े-बड़े बिन्दु झर रहे हैं। वह बोला, “तू जरा हटकर खड़ा हो जा श्रीकांत, मैं इस बेचार को, नौका में रखकर टीले के उस झाऊ-वन के भीतर रखे आता हूँ।”
यह सत्य है कि उसकी आँखों में आँसू देखते ही मेरी आँखों में भी आँसू आ गये, किन्तु इस छूने-ऊने के प्रस्ताव में मैं एकबारगी संकुचित हो उठा। इस बात को मैं अस्वीकार नहीं करता कि दूसरे के दु:ख में दु:खी होकर आँखों से आँसू बहाना सहज नहीं है, किन्तु इसी कारण, उस दु:ख के बीच अपने दोनों हाथ बढ़ाकर जुट जाना- यह बहुत अधिक कठिन काम है। उस समय छोटी-बड़ी न जाने कितनी जगहों से खिंचाव पड़ता है। अव्वल तो मैं इस पृथ्वी के शिरोभूत हिन्दू-घर में वशिष्ठ इत्यादि के पवित्र पूज्य रक्त का वंशधर होकर जन्मा, इसलिए, जन्मगत संस्कारों के वश मैंने सीख रक्खा था कि मृत देह को स्पर्श करना भी एक भीषण कठिन व्यापार है। दूसरे इसमें न जाने कितने शास्त्रीय विधि-निषेधों की बाधाएँ हैं और कितने तरह-तरह के कर्म-काण्डों का घटाटोप है। इसके सिवा यह किस रोग से मरा है, किसका लड़का है, किस जाति का है- आदि कुछ न जानते हुए और मरने के बाद यह ठीक तौर से प्रायश्चित करके घर से बाहर हुआ था या नहीं, इसका पता लगाए बिना ही इसे स्पर्श किस तरह किया जा सकता है?
कुण्ठित होकर जैसे ही मैंने पूछा, “किस जाति का मुर्दा है और क्या तुम इसे छुओगे?” कि इन्द्र ने आगे बढ़कर एक हाथ उसकी गर्दन के नीचे और दूसरा हाथ घुटनों के नीचे देकर उसे सूखे तिनकों के समान उठा लिया और कहा, “नहीं तो बेचारे को सियार नोच-नोचकर न खा जाँयगे? अहा, इसके मुँह से तो अभी तक औषधियों की गन्ध आ रही है रे!” यह कहते-कहते उसने नौका के उसी तख्त पर, जिस पर कि पहले मैं सोया था, उसे सुला दिया और नाव को ठेलकर स्वयं भी चढ़ गया। बोला, “मुर्दे की क्या जात होती है रे?” मैंने तर्क किया, “क्यों नहीं होती?”
इन्द्र बोला, “अरे यह तो मुर्दा है! मरे हुए की जात क्या? यह तो वैसा ही है जैसे हमारी यह डोंगी- इसकी भला क्या जात है? आम या जामुन जिस कभी भी काठ की बनी हो- अब तो इसे 'डोंगी' छोड़ कोई भी नहीं कहेगा कि यह आम है या जामुन। समझा कि नहीं? यह भी उसी तरह है।”
अब मालूम होता है कि यह दृष्टान्त निरे बच्चों का सा था- किन्तु अन्तर में यह भी तो अस्वीकार करते नहीं बनता कि यहीं कहीं, इसी के बीच, एक अति तीक्ष्ण सत्य अपने आपको छुपाए हुए बैठा है। बीच-बीच में ऐसी ही खरी बातें वह कह जाएा करता था। इसीलिए, मैंने अनेक दफे सोचा है कि इस उम्र में, किसी के पास कुछ भी शिक्षा पाए बगैर, बल्कि प्रचलित शिक्षा-संस्कारों को अतिक्रम करके- इन सब तत्वों को उसने पाया कहाँ? किन्तु अब ऐसा जान पड़ता है कि उम्र बढ़ने के साथ मानो मैंने इसका उत्तर भी पा लिया है। कपट तो मानो इन्द्र में था ही नहीं। उद्देश्य को गुप्त रखकर तो वह कोई काम करना जानता ही न था। इसलिए मैं समझता हूँ, उसके हृदय का वह व्यक्तिगत विच्छिन्न सत्य किसी अज्ञात नियम के वंशवर्ती होकर, उस विश्वव्यापी अविच्छिन्न निखिल सत्य का साक्षात् करके, अनायास ही, बहुत ही, सहज में, उसे अपने आप में आकर्षित कर आत्मसात् कर सकता था। उसकी शुद्ध सरल बुद्धि, पक्के उस्ताद की उम्मैदवारी किये बगैर ही, समस्त व्यापार को ठीक-ठीक अच्छी तरह जान लेती थी। वास्तविक, अकपट सहज बुद्धि ही तो संसार में परम और चरम बुद्धि है। इसके ऊपर और कुछ भी नहीं है। अच्छी तरह से देखने पर 'मिथ्या' नाम की किसी भी वस्तु का अस्तित्व इस विश्व-ब्रह्माण्ड में नजर नहीं पड़ता। 'मिथ्या' तो सिर्फ मनुष्य के मानने का और एक फलमात्र है। सोने को पीतल मानना भी मिथ्या है और मनाना भी- यह मैं जानता हूँ। परन्तु इससे सोने का अथवा पीतल का क्या आता-जाता है। तुम्हारी जो इच्छा हो सो उसे मानो, वह तो जो कुछ है, सो ही रहेगा। सोना समझकर उसे सन्दूक में बन्द करके रखने से उसके वास्तविक मूल्य में वृद्धि नहीं होती, और पीतल कहकर बाहर फेंक देने से उसका मूल्य नहीं घटता। उस दिन भी वह पीतल था और आज भी पीतल है। तुम्हारे 'मिथ्या' के लिए तुम्हें छोड़कर न और कोई उत्तरदायी है; और न कोई भ्रूक्षेप ही करता है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड का समस्त ही परिपूर्ण सत्य है। मिथ्या का अस्तित्व यदि कहीं है तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर और कहीं नहीं है। इसलिए इन्द्र ने इस असत्य को, अपने अन्तर में जाने या अनजाने में, किसी दिन जब स्थान नहीं दिया तब यदि उसकी विशुद्ध बुद्धि मंगल और सत्य को ही प्राप्त करती है, तो इसमें विचित्र ही क्या हुआ?
किन्तु यह बात उसके लिए विचित्र न होने पर भी, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि किसी के लिए भी विचित्र नहीं है। ठीक इसी बहाने, मैंने अपने जीवन में ही जो इसका प्रमाण पाया है, उसे कह देने का लोभ मैं यहाँ संवरण नहीं कर सकता।
उक्त घटना के 10-11 वर्ष बाद एकाएक एक दिन शाम के वक्त यह संवाद मिला कि एक वृद्धा ब्राह्मणी उस मुहल्ले में सुबह से मरी पड़ी है- किसी तरह भी उसके क्रिया-कर्म के लिए लोग नहीं जुटते। न जुटने का हेतु यह है कि वह काशी-यात्रा से लौटते समय रास्ते में रोग-ग्रस्त हो गयी, और उस शहर में, रेल पर से उतरकर सामान्य परिचय के सहारे जिनके घर आकर, उसने आश्रय ग्रहण किया, और दो रात रहकर आज सुबह प्राण-त्याग किया, वे महाशय विलायत से लौटे हुए थे और बिरादरी से अलग थे। वृद्धा का यही अपराध था कि उसे नितान्त निरुपाय अवस्था में इस 'बिरादरी से खारिज' घर में मरना पड़ा।
खैर, अग्नि-संस्कार करके दूसरे दिन सुबह वापस आकर मैंने देखा कि हर एक घर के किवाड़ बन्द हो गये हैं। सुनने में आया कि गत रात को, ग्यारह बजे तक, हरिकेन लालटेन हाथ में लिये हुए, पंच लोगों ने घर-घर फिरकर स्थिर कर दिया है कि इस अत्यन्त शास्त्र-विरुद्ध अपकर्म (दाह) करने के कारण इन कुलांगारों को सिर मुँड़ाना होगा, अपराध स्वीकार करना होगा और एक ऐसी वस्तु (गोबर) खानी पड़ेगी जो कि सुपवित्र होते हुए भी खाद्य नहीं है। उन्होंने घर-घर जाकर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि इसमें उनका कोई भी हाथ नहीं है; क्योंकि अपने जीते-जी, वे समाज में किसी भी तरह यह अशास्त्रीय काम नहीं होने दे सकते। हम लोग, और कोई उपाय न रहने पर डॉक्टर साहब के शरण में गये। वे ही उस शहर में सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक थे और बिना दक्षिणा के ही बंगालियों की चिकित्सा किया करते थे। हमारी कहानी सुनकर डॉक्टर महाशय क्रोध से सुलग उठे और बोले, “जो लोग इस तरह लोगों को सताते हैं, उनके घरों में यदि कोई मेरी आँखों के सामने बिना चिकित्सा के मरता होगा, तो भी मैं उस ओर आँख उठाकर नहीं देखूँगा।” न मालूम, किसने यह बात पंचों के कानों तक पहुँचा दी। बस, शाम होते न होते मैंने सुना कि सिर मुँड़ाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अपराध स्वीकार करके उस सुपवित्र पदार्थ को खा लेने मात्र से काम चल जाएेगा! हमारे स्वीकार न करने पर दूसरे दिन सुबह सुना गया, अपराध स्वीकार कर लेने से ही काम हो जाएेगा- वह पदार्थ न खाना हो तो न सही! इसे भी न स्वीकार करने पर सुना गया कि चूँकि यह हम लोगों का प्रथम अपराध है, इसलिए, उन्होंने उसे यों ही माफ कर दिया है, प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं है! किन्तु, डॉक्टर साहब बोले, “ठीक है कि प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं परन्तु दो दिन तक इन्हें जो क्लेश दिया गया है, उसके लिए यदि प्रत्येक आदमी आकर क्षमा प्रार्थना न करेगा, तो फिर, जैसा कि वे पहले कह चुके हैं, वैसा ही करेंगे, अर्थात् किसी के भी घर न जाँयगे।” इसके बाद उसी दिन संध्यान के समय से डॉक्टर साहब के घर एक-एक करके सभी वृद्ध पंचों का शुभागमन होना शुरू हो गया। आशीर्वाद दे-देकर उन्होंने क्या-क्या कहा, उसे तो अवश्य ही मैं नहीं सुन पाया, किन्तु दूसरे दिन देखा कि डॉक्टर साहब का क्रोध ठण्डा हो गया है और हम लोगों को भी प्रायश्चित करने की जरूरत नहीं रही है।